गाय की महत्ता और आवश्यकता

स्वराज्य-प्राप्ति से पहले जितनी गोहत्या होती थी, उससे बहुत गुना अधिक गोहत्या आज होती है । चमड़े के निर्यात में भारत का मुख्य स्थान है । पशुओं को निर्दयतापूर्वक बड़ी तेजी से नष्ट किया जा रहा है । गायों का तो वंश ही नष्ट हो रहा है । पैसों के लोभ से बड़ी मात्रा में गोमांस का निर्यात किया जा रहा है । रूपयों के लोभ से बुद्धि इतनी भ्रष्ट हो गयी है कि पशुओं के विनाश को ‘मांस-उत्पादन’ माना जा रहा है ! भेड़-बकरियों, मछलियों, मुर्गियों आदि का तो पालन और संवर्धन किया जा रहा है, पर जिनका गोबर-गोमूत्र भी उपयोगी होता है, उन गायों की हत्या की जा रही है ! खुद में तो अक्ल नहीं और दूसरे की मानते नहीं-यह दशा हो रही है !
रूपयों से वस्तुएँ श्रेष्ठ हैं, वस्तुओं से पशु श्रेष्ठ हैं, पशुओं से मनुष्य श्रेष्ठ हैं, मनुष्यों में भी विवेक श्रेष्ठ है और विवेक से भी सत्-तत्त्व(परमात्मतत्त्व) श्रेष्ठ है । परंतु आज सत्-तत्त्व की उपेक्षा हो रही है, तिरस्कार हो रहा है और असत्-वस्तु रूपयों को बड़ा महत्त्व दिया जा रहा है । रूपयों के लिये अमूल्य गोधन को नष्ट किया जा रहा है । गायों से रूपये पैदा किये जा सकते हैं, पर रूपयों से गायें पैदा नहीं की जा सकतीं । गायों की परम्परा तो गायों से ही चलती है । जब गायें नहीं रहेंगी, तब रूपयों से क्या होगा ? उलटे देश निर्बल और पराधीन हो जायगा । गायें भी खत्म हो जायँगी, रूपये भी । रूपये तो गायों के जीवित रहने से ही पैदा होंगे । गायों को मारकर रूपये पैदा करना बुद्धिमानी नहीं है । बुद्धिमानी तो इसी में है कि गायों की वृद्धि की जाय । गायों की वृद्धि होने से दूध, घी आदि की वृद्धि होगी, जिनसे मनुष्यों का जीवन चलेगा, उनकी बुद्धि बढ़ेगी । बुद्धि बढ़ने से विवेक को बल मिलेगा, जिससे सत्-तत्त्व की प्राप्ति होगी । सत्-तत्त्व की प्राप्ति होनेपर पूर्णता हो जायगी अर्थात् मनुष्य कृतकृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जायगा ।
जय गौ माता
‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तक से, पुस्तक कोड- 465, विषय- गाय की महत्ता और आवश्यकता, पृष्ठ-संख्या- ९४३, गीताप्रेस गोरखपुर
ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज